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Friday, June 13, 2014

तकल्लुफ़ बरतरफ़




आओ दो इक लम्हे मेरे साथ गुज़ारो
मैं भी तुम जैसा ही बेबस बेचारा हूँ
मेरे दिल में भी यादों का धुआँ भरा है
मेरे दिल में भी हसरत की चिता
न जाने कब से
अब तक सुलग रही है
लेकिन मैं अपने ग़म को
अपने अन्दर ही दफ़न किए हूँ
तुम पर क्या
मैंने अपने पर भी
अपना ग़म ज़ाहिर होने नहीं दिया है।

मैं हँसता हूँ
पहले कोशिश से हस्ता था
अब हँसने की आदत सी है

आओ तुम्हारे दर्द भरे लम्हों को
अपनी इस आदत की तेज़ हवा में
उड़ा-उड़ा कर दूर भगा दूँ

हो सकता है फिर तुम भी
अपने ग़म को अपने सीने में दफ़्नाकर
मेरी तरह हसने लग जाओ। 

Thursday, March 27, 2014

ग़ज़ल

दिल-सी नायाब चीज़ खो बैठे।
कैसी दौलत से हाथ धो बैठे।

अह्दे-माज़ी का ज़िक्र क्या हमदम,
अह्दे-माज़ी को कबके रो बैठे।

हमको अब ग़म नहीं जुदाई का,
अश्के-ग़म जाम में समो बैठे।

वअज़ करने को आए थे वाइज़,
मै से दामन मगर भिगो बैठे।

क्या सबब है 'नरेश' जी आख़िर,
क्यों जुदा आप सब से हो बैठे।

(नायब - दुर्लभ; अह्दे-माज़ी - अतीत; हमदम - मित्र; अश्के-ग़म - ग़म के आँसू; वअज़ - नसीहत; वाइज़ - उपदेशक)                      

Saturday, January 4, 2014

दो और दो चार


मैं मरना चाहता था 
लेकिन 
कल मैं इसलिए नहीं मर सका 
कि मेरे माँ-बाप ये सदमा कैसे बर्दाश्त करेंगे। 

आज मैं इसलिए नहीं मरता हूँ 
कि मेरे मरने के बाद 
मेरे बच्चों का क्या होगा 

और 
कल मैं इसलिए नहीं मारूँगा 
क्योंकि मैं जीना चाहूँगा 

लेकिन 
जब मौत चाहने पर मौत नहीं मिली 
तो ज़िन्दगी चाहने पर 
ज़िन्दगी कौन देगा?  

Thursday, January 2, 2014

सदा

बादलों के झुरमुट से
किसने दी सदा मुझको
और उफ़ुक़ पे कौन ऐ दोस्त
मेरा नाम लेता है?

मैं हर एक रिश्ते को
यास का कफ़न देकर
मुद्दतें हुईं जबकि
दूर जंगलों में कहीं
दफ़्न कर चुका हूँ
अब
किसने दी सदा मुझको?
किसने दी सदा मुझको?