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गो हमारे आँसुओं का बाँध है टूटा हुआ,
फिर भी हम खुश हैं कि अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया।   
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अब तो 'नरेश' अक्सर आती है,
दिन चढ़ते ही नयी मुसीबत।  
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चलो वो साँप नहीं उसको आदमी कह लो,
मगर वो ज़ह्र उगलता सा क्यों लगे है मुझे।   
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फ़रेबे-मै न मुझे दे कि ऐ मेरे साक़ी,
पिला कुछ ऐसी कि ता-ज़िन्दगी सुरूर रहे  
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उगेगे भूख के खेतों से इन्क़िलाब इक दिन,
ये रंज हँसके उठा इनका कुछ मलाल न कर 

(मलाल - दुःख)  
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आएगा दूर तक कोई पीछे ये वेह्म है,
आवाज़ दे रहा हूँ कि बस लौट आइए 
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दोस्तों की बात क्या अपनों का ज़िक्रे-ख़ैर क्या, 
दुश्मनों तक के लिए है बावफ़ा मेरा वतन 
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मकीं जितने भी हैं सब मेहमाँ दो-चार दिन के हैं, 
रहेगा इस ज़माने में फ़क़त वो ला-मकाँ बाक़ी। 

(मकीं - रहने वाले; फ़क़त - मात्र)  
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भीड़ को शक्ल दें कारवाँ की मगर,
कारवाँ को कोई राह भी तो मिले।  
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गाओं की सादगी गाओं में ठीक थी,
शहर में यूँ जियोगे तो मर जाओगे।  
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ऐ 'नरेश' अपने भी बाल चाँदी हुए, 
बाढ़-सी वो नदी भी उतरने लगी  
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ज़बाँ पे क़ुफ़्ले-अना था कि चाहने पे भी हम,
बयान कर न सके मुद्दआ नरेश अपना।   

(क़ुफ़्ले-अना - अहम का ताला) 
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दुश्मनों से भी राब्ता रखना, 
सामने अपने आईना रखना।   
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धूप उतरी जो आबशारों पर, 
और भी कुछ निखर गया पानी।  
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अश्क थम गए तो क्या चल रही हैं सिसकियाँ,
बुझते-बुझते शमअ भी छोड़ती है कुछ धुआँ।    
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ये बेरुख़ी ही मुक़द्दर थी ऐ 'नरेश' अगर, 
तो फिर वो दा'वतें देती हुई नज़र क्या थी 
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दिल-सी नायाब चीज़ खो बैठे,
कैसी दौलत से हाथ धो बैठे। 
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गवाह हैं मेरे घर की तमाम दीवारें,
कि तेरी याद को रखा है आबरू की तरह
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दोस्तो उसकी बात फिर छेड़ो,
ज़िक्र उसका शराब जैसा है  
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वक़्त अपने आप मरहम बन गया,
रफ़्ता-रफ़्ता ज़ख़्मे-दिल भरते गए।  
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हुस्न इस दौर में जादू नहीं अय्यारी है,
जिस पे मरना हो ज़रा सोच-समझकर मरिए। 

(अय्यारी-चतुराई) 
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वो जो ख़ुदा है सबका 'नरेश', 
काश वो होता मेरा भी 
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तन्हाई मुक़द्दर है तो दस्तक का गुमाँ क्यों, 
दरवाज़े का पट तेज़ हवाओं से हिला है
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हो दोस्ती में तकल्लुफ़ तो दोस्ती क्या है, 
हो दुश्मनी में मुहब्बत तो दुश्मनी क्या है 
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आप अगर सहते रहे चुपचाप ये ज़ुल्मों-सितम, 
बुज़दिली के रास्ते हमवार होते जाएँगे।  
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जाने क्या जादू है उसके ज़िक्र में, 
बात चल निकले तो चलती जाए है 
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जवाब तो था हर इक बात का 'नरेश' मगर,
अज़ीज़ हमको तअल्लुक़ की आबरू थी बहुत। 
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मेरे माथे पे लिख दे नाम अपना,
मुझको अपना पता बना मौला। 
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होंठ सीखेंगे कब ज़बाँ चुप की,
बन्द कब होगा बोलना मौला।  
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उँगलियाँ अपनी जला बैठे हैं हम इस जोश में, 
आज ही कर डालें सारी रोशनी कल की जगह 
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एक दिन पीकर ज़रा सच कह दिया था, उम्र भर, 
शक्ल से बेज़ार मेरी पीरे-मैख़ाना रहा 
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मुझे तो ख़ैर निकाला था तुमने महफ़िल से,
तुम्हारा चेहरा भी उतरा सा  क्यों लगे है मुझे।  
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ऐ 'नरेश' आज रो के साथ मेरे, 
मुझसे कर लेंगे दोस्ती बादल।  
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पाओं रखने को ज़मीं तक न मुयस्सर होगी,
भीड़ से ऊँचा न उठ भीड़ का हिस्सा हो जा

(मुयस्सर - उपलब्ध)  
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कि हमसे छूटता जाता था सब्र का दामन, 
जो हाल-दिल न सुनाते तो और क्या करते।   
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मैं तेरी तलाश में दर-ब-दर फिरा किया,
तू मुझी में था निहाँ ऐ कि मेरे ल-मकाँ।
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तेरे जाने के बाद बरसों तक, 
लब तरसते रहे हँसीं के लिए 
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सिमट सको तो सिमटकर गुलाब बन जाओ,
बिखर सको तो बिखर जाओ रंगो-बू की तरह
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जो तेरे बिन न तुझ से कुछ माँगे, 
वो गदागर मुझे बना मौला।   
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आँसू-आँसू में अक्स हो तेरा, 
मुझको यूँ भी कभी रुला मौला।  
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अज़ीज़ था वो हमें अपनी जान से बढ़कर,
न उसके नाज़ उठाते तो और क्या करते।   
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संगदिल वो सनम हमसे क्या खुल गया,
हम पे गोया हर इक मो'जिज़ा खुल गया  
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पीपल से बिछड़कर हम हो बैठें है कैक्टस के,
अब ज़िक्र भी गाओं का पलकों का भिगोना है
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देखोगे जब कि पेड़ों तले भी नहीं है छाओं,
तब ख़ुद-बख़ुद ही घर को पलट आओगे मियाँ।   
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तुम तो घूमे हो दर-ब-दर बाबा, 
कोई इन्सान की ख़बर बाबा।  
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दरम्याँ इनके फ़ासला रखना, 
ज़ेह्नो-दिल को जुदा-जुदा रखना। 

(ज़ेह्नो-दिल - मस्तिष्क और ह्रदय)   
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वो लोग जिनसे कोई वास्ता न था,
जचने लगे तो उन-सा कोई दूसरा न था
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ऐ 'नरेश' इश्क़ का कुछ भी दस्तूर हो,
ख़ुद भी आकर वो हमसे कभी तो मिले।  
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अब तो सचमुच आ गया कलजुग 'नरेश',
दूध बिकने लग गया है गाओं में
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कोई चेहरे पे चेहरा लगाता ही न था, 

इस लिए गाओं में आईना ही न था।  
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इस बियाबान को शहर कैसे कहूँ, 
साये ही साये हैं आदमी तो मिले।  
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जी लिए उनको बिना देखे बहुत अब तो 'नरेश', 
जिस्म का पर्दा उठे साअते-तलअत आए

(साअते-तलअत - दर्शन का पल)   
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ये अस्लियत है तो धोखा सा क्यों लगे है मुझे, 
हरेक शख़्स खिलौना सा क्यों लगे है मुझे।  
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'नरेश' एहसास का यूँ मुंजमिद होना मआज़-अल्ला,
न फ़रयादों-फ़ुग़ाँ बाक़ी न दिल बाक़ी न जाँ बाक़ी। 
  
(फ़रयादों-फ़ुग़ाँ - फ़रयाद और आह) 
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अना-पसंद तो था ही 'नरेश' बचपन से, 
बड़ा हुआ है तो मअबूद हो गया होगा। 

(अना-पसंद - अहम्प्रिय; मअबूद - पूज्य)  
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मुझे क़ुबूल कि तुमने वफ़ा निबाही है, 
दुरुस्त तुमने मुझे बेपनाह मुहब्बत दी
मगर ये कैसे कहूँ मैं ही बेवफ़ा निकला,
मगर ये कैसे कहूँ मैंने ख़ुदकुशी कर ली  
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धूप भी घर-घर ऐसे उतरी जैसे कोई गाय,
आटे का पेड़ा लेने को इत आए उत जाए  
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जिनको दावा था चलेंगे साथ मेरे दम-बी-दम,
राह पर निकले तो चल पाए न दो-दो गाम भी
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ज़माना हो गया तुझसे अलग हुए लेकिन, 
चिता अभी भी सुलगती है मेरे सीने में
मेरे दिमाग़ में पाज़ेब-सी छनकती है,
कसक अभी भी मचलती है मेरे सीने में  
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अपने मन में झाँककर भी ख़ुद से बेगाना रहा,
तू हक़ीक़त-आशना होकर भी दीवाना रहा

(हक़ीक़त-आशना - अनजान) 
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जलाने वाले मेरे दिल के है दुआ ये मेरी, 
न छूके तुझको मेरी आह का धुआँ गुज़रे।   
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दूर है जो 'नरेश' आँखों से, 
दिल के इतना क़रीब क्या मअनी।   
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रोता हूँ शायद बह जाए, 
मन का बोझ इन्हीं अँसुवन में  
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हमको अब ग़म नहीं जुदाई का, 
अश्के-ग़म जाम में समो बैठे।  
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संभलने ही नहीं देती 'नरेश' लग्ज़िशे-पा, 
नज़र के सामने मंज़िल है देखिए क्या हो  

(लग्ज़िशे-पा - पैर का लड़खड़ाना) 
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शहर से गाओं तक आ गई जब सड़क,
आईनों पर बहुत धूल जमने लगी  
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तू मेरे पास नहीं है मेरे ग़मख़्वार मगर, 
तेरे हिस्से की छलक जाती है पैमाने से  
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अब तो बस यही कहिए था यही मुक़द्दर में, 
ख़ुद हुए कि उस बुत के इश्क़ ने किया रुस्वा।  
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आशिक़ी के दामन में ग़म ही ग़म नहीं होते, 
राहतें भी होती हैं आशिक़ी के दामन में  
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टूट ही जाएँ न धरती से कहीं सब रिश्ते,
इतना ऊँचा भी न उड़ थोड़ा-सा नीचा हो जा  
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टूट जाए न हमसे दिल की तरह,
जाम साक़ी को ही संभाल आए 
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यूँ तो जाने को चले जाओगे तुम, 
याद लेकिन बेहिसाब आओगे तुम
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चली है अक़्ल अंधेरे में ढूँढने दिल को,
जुनूँ की लाश से टकरा गई तो क्या होगा।  
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वो तेरी चाह थी हसरत थी याद थी क्या थी, 
वो इक किरण थी मेरी रात का उजाला थी
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जाते हो गाओं छोड़के पछताओगे मियाँ, 
इन्सान देखने को तरस जाओगे मियाँ।    
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भीड़ को शक्ल दें कारवाँ की मगर,
कारवाँ को कोई राह भी तो मिले।  
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ग़ज़ल ही ऐसा ज़रिया है गुफ़्तगू का 'नरेश',
कि कह दिया सभी कुछ और कुछ कहा भी नहीं।  
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बहुत बोझल हैं ये सिक्के तुम्हारे, 
मेरे शे'रों को तुम फूलों में तोलो।   
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हंगामे-मुहब्बत कि बस इतनी हक़ीक़त है, 
मैं तेरी ज़रूरत हूँ तू मेरी ज़रूरत है 
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जाके अब बैठेंगे किसकी छाओं में, 
बूढ़ा बरगद ही नहीं है गाओं में  
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ख़िलाफ़ उसके ज़बाँ खोलो न खोलो, 
मगर ये क्या कि तुम सच भी न बोलो।  
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दोस्त चुप बैठे रहेंगे सर झुकाए ऐ 'नरेश', 
क्या ख़बर थी बज़्म से हम यूँ निकाले जाएँगे।   
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ऐ परिन्दे नग्मा-ए-ग़म कितने दिन, 
आशियाँ जलने का मातम कितने दिन   
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झूठ को सच के बराबर कर दिया, 
हमने आईने को पत्थर कर दिया।   
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ये तो मालूम था दिल होता है दरिया जैसा, 
ये न मालूम था हमको कि है गहरा इतना।   
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क्या अजनबी था अक्स उन आँखों की झील में,
आईना क्या अजीब था सूरत बदल गई 
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तुम्हें करीब से देखें ये आरज़ू थी बहुत, 
ख़ुद अपने आप से मिलने की भी तमन्ना थी 
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दीवाने ये शहरों के जब गाओं को लौटेंगे, 
होंठों पे हँसी होगी आँखों में नमी होगी।   
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बस मिला कर हाथ अपनी उंगलियाँ गिन लीजिए,
आपको भी शहर में रहने का फ़न आ जाएगा।   
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जोड़ रहे हैं तिनका-तिनका अभी तो झोंपड़-पट्टी का, 
फ़ुर्सत मिली तो इक दिन जाकर उनका घर भी दिखेंगे।    
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अब इश्तियाक़ नहीं उसको देखने तक का, 
इक उम्र में जिसे छूने की आरज़ू थी बहुत। 

(इश्तियाक़ - लालसा) 
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दिल ही सबसे बड़ा अदू है 'नरेश',
हौसले से मुक़ाबला करना।  
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जामो-मीना से न बहला मुझे मेरे साक़ी, 
चाहिए मुझको समन्दर कि हूँ प्यासा इतना।   
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जिसको न राह न रहबर न मंज़िलों की ख़बर, 
हवा के दोश पे उड़ता हुआ वो तिनका हूँ  
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दीनो-दुनिया की ख़ातिर न दीवाना बन, 
दिल में झाँक और अपने में हो जा मगन  
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अपनी अना के ख़ोल से बाहर भी आइए, 
रूठा हुआ हूँ मैं मुझे आकर मनाइए। 

(अना - अहम; ख़ोल - आवरण)     
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वो अपना भी तो नहीं था हमारा क्या होता, 
अब उसके बारे में क्या सोचना चलो छोड़ो।  
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वो नशा है कि किसी तौर काम नहीं होता, 
हमारे लब ने कभी जाम को छुआ भी नहीं।   
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तुम न थे तो कोई आशना ही न था,
भीड़ से मुझको कुछ वास्ता ही न था
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दिल का सुकून हूँ न नज़र का क़रार हूँ, 
अहले-वफ़ा के क़ल्बे-हज़ीं की पुकार हूँ

(अहले-वफ़ा - वफ़ा करने वाले; क़ल्बे-हज़ीं - दुखी दिल)   
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ख़ुशी से कौन मरता है कि उसने ख़ुदकुशी कर ली,
न जाने मरने वाले की भी क्या मजबूरियाँ होंगी।   
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बे-पिये भी सुरूर मुमकिन है,
सारी मस्ती शराब ही में नहीं।  
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कैसी अजीब भीड़ थी उस शहर की 'नरेश',
जिस पर नज़र पड़ी वही चेहरा निगल गई  
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छाले-से 'नरेश' उसकी ज़बाँ पर भी पड़े हैं,
सुनते थे कि सच से उसे परहेज़ बहुत है  
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जैसे-जैसे उम्र ढलती जाए है, 
ज़िन्दगी की प्यास बढ़ती जाए है 
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जो कर सको मुझे महसूस कर लो इक लम्हा,
पकड़ न पाओगे मुझको हवा का झोंका हूँ
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अपनी-अपनी ज़िन्दगी अपनी-अपनी दास्ताँ,
कौन किसका हमसफ़र कौन किसका राज़दाँ।   
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हाथ में शर न पीठ पर तूणीर,
बन गए शकुनि सबके सब रणवीर।   
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उँगलियाँ अपनी जला बैठे हैं हम इस जोश में,
आज ही कर डालें सारी रोशनी कल की जगह 
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कितना ही सुख क्यों न हो माशूक़ की ज़ुल्फ़ों तले,
कोई ले सकता नहीं हैं माँ के आँचल की जगह  
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शायरी की नज़्र कर दी ज़िन्दगी हमने 'नरेश',
शे'र कहना शे'र पढ़ना उम्र भर अच्छा लगा   
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ये किस मक़ाम पे लाया है तेरा इश्क़ मुझे,
जहाँ नशा ही नशा है मगर शराब नहीं। 
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उम्र सारे खिलोने निगल जाएगी,
बेसबब हँस सकोगे न रो पाओगे।   
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मेरे हक़ में यही दुआ करना, 
मुझको आसाँ हो हक़ अदा करना।   
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ये इश्क़ भी क्या शै है औसान का खोना है, 
दो रोज़ का हँसना है इक उम्र का रोना है  
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ज़रा कुछ और बढ़ने दीजिए शहरों की आबादी, 
फिर इन कागज़ के फूलों पर भी रंगीं तितलियाँ होंगी।   
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सर उसे कहता हूँ जिसमें हो शहादत का जुनूँ,
हक़गोई पर जो कटे उसको ज़बान कहता हूँ

(शहादत - शहीद होने की इच्छा; हक़गोई - सत्यवादिता) 
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नसीब ऐसा भी दुश्मन न था नरेश अपना, 
न फिर भी कोई मगर बन सका नरेश अपना।  
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आईना टूटा तो हर टुकड़े में तेरा अक्स था, 
तू बिखरकर और भी कुछ ख़ूबसूरत हो गया 
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अब तो चेहरे बदल के जीना है, 
अब ये आईना तोड़ना होगा।  
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रोशनी से नजात भी देना,
दिन दिया है तो रात भी देना।   
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गाओं जो उजड़े थे वो आबाद कब के हो गए, 
दिल की बस्ती ऐसी उजड़ी है कि बसती ही नहीं।   
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जिस्म की आंच पे इतना न भरोसा करिए, 
मैं भी अपने से डरूँ आप भी ख़ुद से डरिए।   
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मस्जिदों में अज़ाने थी तबलीग़ थी, 
शैख़ थे मौलवी थे ख़ुदा ही न था

(तबलीग़ - धर्म-प्रचार)    
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हरेक शख़्स को दुख है यहाँ कोई न कोई, 
मगर यहाँ से कोई जाना चाहता भी नहीं।   
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पहले घर के दरवाज़े पर राम लिखूँ, 
फिर बाबा को आने का पैग़ाम लिखूँ।   
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मैं ख़ुद से भागता भी तो जाता कहाँ 'नरेश',
मेरे सिवा कोई मुझे पहचानता न था
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फ़ाक़ो से 'नरेश' अपने को बहलाओगे कब तक, 
दुनिया की तरह तुम भी बदल क्यों नहीं जाते।    
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भीड़ में आके खुला राज़ ये मुझ पर कि 'नरेश', 
मैं अकेला तो कभी भी न था तन्हा इतना।  
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मेरे हक़ में यही दुआ करना, 
मुझको आसाँ हो हक़ अदा करना।   
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बग़ैर इश्क़ के जीने में कुछ मज़ा भी नहीं, 
ये ऐसा रोग है जिसकी कोई दवा भी नहीं।  
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अहसास के जंगल में छाओं तो घनी होगी, 
लौटोगे तो चेहरे पर बस धूल जमी होगी।   
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बिछुड़ रहा है तो ये बद-दुआ न दे मुझको, 
तेरे बग़ैर जियूँ ये सज़ा न दे मुझको।   
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ख़मोश उठके न आते तो और क्या करते, 
हम अपनी जाँ न बचाते तो और क्या करते।   
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तमाम शहर पे बारिश थी पत्थरों की 'नरेश',
हम अपना सर न बचाते तो और क्या करते।  
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हम पर तेरे कूचे में पत्थर तो बहुत बरसे, 
दिल था कि नहीं टूटा जाँ थी कि सलामत है  
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अश्क पी लेंगे होंठ सी लेंगे, 
तुम जो ख़ुश हो तो यूँ भी जी लेंगे।   
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आए हो तो कुछ बात करो यूँ न रहो चुप, 
उड़ जाएँगे लम्हे कि हवा तेज़ बहुत है  
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ये तो ख़बर थी सच कहने पर अपने पराये बिगड़ेंगे, 
ये न ख़बर थी सब के हाथों में पत्थर भी देखेंगे।   
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किसके दर पर दस्तक दूँ,
किस्से तेरा पता पूछूं। 
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तू क़लंदर है तो फिर इस बात का क्या ग़म तुझे,
तेरे हिस्से में है शोहरत या कि हैं रुस्वाइयाँ।   
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ये इलाजे दर्दो-ग़म भी ऐ 'नरेश' आया न रास, 
अब मयो-मीना-ओ-साग़र से भी घबराता है दिल  

(मयो-मीना-ओ-साग़र - शराब, सुराही, प्याला) 
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ख़ुदा जाने सज़ा हमको मिली है किन गुनाहों की,
कि अपने मुल्क में ही अब नहीं अपनी ज़बाँ बाक़ी।  
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हो गए हम गली-गली रुस्वा,
तू न ज़िद से मगर टला ऐ दिल  
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एक समाँ ऐसा भी हम पर गुज़र गया है हमनफ़सों, 
ग़ैर सभी अपने थे लेकिन अपने सभी पराए थे  
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जलाने वाले मेरे दिल के है दुआ ये मेरी,
न छूके तुझको मेरी आह का धुआँ गुज़रे।  
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'नरेश' अपने रफ़ीक़ों से भी हँसी का फ़रेब, 
तू हँस रहा है तो रोता सा क्यों लगे है मुझे।  
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दीनो -दुनिया की ख़ातिर न दीवाना बन,
दिल में झाँक और अपने में हो जा मगन  
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कुछ तो निसबत 'नरेश' रख उनसे,
वो नहीं हैं तो उनका ग़म ही सही  
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बात कल की है मगर जैसे ज़माना हो गया, 
शायरी का दौर गोया इक फ़साना हो गया 
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है जो मक़सूद तुम को ताज़ा हवा, 
घर की दीवार फ़ाँदना सीखो।  
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आगे बढ़ने का शौक़ है तो 'नरेश', 
कुछ ज़रा पीछे लौटना सीखो। 
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वो समझता है सिर्फ़ दिल की ज़ुबाँ, 
उस को दिल से पुकारना सीखो।  
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ख़ुद को गहरे कुरेदना सीखो,
बंद आँखों से देखना सीखो।   
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मेरी बर्बादी का आलम देख लो,
कर रहा हूँ अपना मातम देख लो   
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कितने ही लोग हैं समझाने चले आते हैं, 
काश! मिल जाता कोई मुझको समझने वाला। 
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कौन कहता है अँधेरा नहीं छंटने वाला, 
इक सितारा तो बने कोई चमकने वाला।   
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अजीब दुनिया उभर आई है बनावट की, 
न आंसुओं की है कीमत न मुस्कराहट की  
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मेरे माथे पर लिख दे नाम अपना,
मुझको अपना पता बना मौला।   
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हज़ार ग़म हैं जो दिल में छुपाए बैठा हूँ,
ये और बात है ख़ुश-ख़ुश दिखाई देता हूँ  
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तुमसे शिकवा है न ख़ुद ही से शिकायत मुझको, 
कच्चे धागों का जो रिश्ता था वो कच्चा निकला।   
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मुझको ठुकराते हो ठुकरा लो मगर, 
अपनी नादानी पे पछताओगे तुम
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रोते बच्चे को गोद में ले ले,
दे न जन्नत का झुनझुना मौला।   
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वो अपना है तो मेरी दस्तरस से क्यों है परे, 
वो अजनबी है तो अपना-सा क्यों लगे है मुझे। 

(दस्तरस - पहुँच, पकड़)   
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सुख भी आएगा दुःख के बाद,
हर रजनी प्रभातयुत है  
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उलझना किसने सिखाया है इसको रिन्दों से, 
मेरे ख़ुदा ज़रा नासेह को भी नसीहत दे  

(नासेह - उपदेशक)
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हम ख़ुदी को न करेंगे कभी नीलाम ऐ दोस्त, 
क्या हुआ गर तहे-इफ़्लास पले हैं हम लोग
    
(तहे-इफ़्लास - कंगाली में)
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उसे न देखूँ तो ये चश्मे-शौक़ पथराए, 
जो देख लूँ तो सुकूनो-क़रार लुट जाए

(चश्मे-शौक़ - प्रेम भरी आँखें; सुकूनो-क़रार - आराम-चैन)    
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होंठ सीखेंगे कब ज़बाँ चुप की,
बंद कब होगा बोलना मौला।  
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उस काफ़िर की याद का लहरा। 
मुद्दत से है दिल में ठहरा।   
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आया ख्याल मुझको कभी वस्ल का अगर,
एहसास गूँजती हुई शहनाई बन गया 
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हम फ़क़ीरों को याद कर लेना,
जब तेरे हुस्न पर ज़वाल आए

(ज़वाल - उतार) 
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कहाँ वो ब्ज़में-सुख़न अब 'नरेश' बाक़ी है, 
कि बाँधती थी समाँ जिसमें दीदावर की चोट

(ब्ज़में-सुख़न - साहित्यिक गोष्ठी; दीदावर - आँख वाला, गुणज्ञ)     
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तेरी ही याद थी जो बनी सुब्हदम सबा,
तेरा ही था ख्याल जो पुरवाई बन गया   
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कम-कम रहेगी दिल में ट्रेकव तेरे धूप की चुभन,
सेहरा में तुझको यादे-गुलिस्ताँ भी आएगी आएगी।   
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है यही मुक़द्दर तो साथ-साथ ही रह लें,
ये भी क्या कि हम दोनों हों जुदा-जुदा रुस्वा।    
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उनकी बेरुख़ी से या अपनी बेक़रारी से, 
हो गया 'नरेश' आख़िर इश्क़ आपका रुसवा।  
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ज़मीं तेरी जहाँ तेरा आसमाँ तेरा, 
मगर नज़र नहीं आता कहीं निशाँ तेरा।   
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जो तेरे बिन न तुझ से कुछ माँगे,
वो गदागर मुझे बना मौला।    
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ज़ुल्म कब तक सहेंगे आप 'नरेश',
अब तो सर से गुज़र गया पानी।  
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ख़ुद को गहरे कुरेदना सीखो,
बंद आँखों से देखना सीखो।  
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ये इलाजे दर्दो-ग़म भी ऐ 'नरेश' आया न रास,
अब मयो-मीना-ओ-साग़र से भी घबराता है दिल

(मयो-मीना-ओ-साग़र - शराब, सुराही, प्याला)    
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नाहक़ है गिला हमसे बेजा है शिकायत भी
हम लौट के आ जाते आवाज़ तो दी होती

(बेजा - अनुचित)  
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रिफ़अतें छू के दिखा इश्क़ो-मुहब्बत की 'नरेश', 
उसने इक क़तरा जो माँगा है तो दरिया हो जा    
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क्या ख़बर कब दुआ उतर आए, 
एक दरीचा कोई खुला रखना।  
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तू कि कश्ती भी है साहिल भी है तूफ़ान भी है
और हम जैसे ग़रीबों का निगहबान भी है 
तेरे ही नूर से रोशन है ये सारा आलम,
तेरे ही नूर से इन्साँ मगर अनजान भी है 
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दिल की दुनिया तबाह सी क्यों है, 
हर नफ़स एक आह सी क्यों है  
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मैं गुनहगार मगर आह तुझे भूल गया
बख्श दे मेरे ख़ुदावन्द मुझे भूल गया 
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तेरे अहसाँ है ये रेहमत है करम है आक़ा, 
बख्श दे मेरी ख़ताएँ कि हूँ बन्दा तेरा।   
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आँच देते हुए जिस्मों का भरोसा कब तक,
हुस्न इक धूप है ढलती है तो ढल जाती है
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किसकी आमद है कि क़दमों में बिछी है चाँदनी, 
कौन आया है कि बढ़कर ले रही है ज़िन्दगी।   
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इश्क़ करने का शौक़ है तो 'नरेश',
जान देने का हौंसला रखना।
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तुम न थे तो कोई आशना ही न था,
भीड़ से मुझ को कुछ वास्ता ही न था  
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तू तग़ाफ़ुल पसंद है या फिर, 
बेअसर है मेरी दुआ मौला।    
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होंठ सीखेंगे कब ज़बाँ चुप की, 
बंद कब होगा बोलना मौला।   
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संगदिल वो सनम हम से क्या खुल गया, 
हम पर गोया हरिक मोजज़ा खुल गया  
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ख़िलाफ़ उस के ज़बाँ खोलो न खोलो,
मगर ये क्या के तुम सच भी न बोलो।   
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घर से भागे तो घर को ही लौट आओगे, 
आसमाँ अपनी छत सा कहाँ पाओगे।   
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मेरे अश्कों से भीगी-भीगी सी,
ऐ 'नरेश' आज रात मेरी है। 
मेरे कब्ज़े में ग़म हैं दुनिया के,
यानी कुल कायनात मेरी है। 
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'नरेश' आओ दुआ माँगे जहाँ में अम्न हो हर सू,
निशाँ कुल्फ़त का मिट जाए बसे आराम से दुनिय। 
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हँसी तुम्हारी ग़ज़ब ढा गई तो क्या होगा।
अदा ये दिल को मेरे भा गई तो क्या होगा।   
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ग़म जुदाई का न शायद मुझे इतना होता। 
तुमने ऐ काश जो मुझको कभी समझा होता।
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जो न मिल सका तुमको आगही के दामन में।
वो सुकूँ मिला हमको बेख़ुदी के दामन में। 

(आगही - बुद्धि;  बेख़ुदी - बेहोशी) 
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दिल ख़ुद भी तड़पता है ज़ालिम और मुझको भी तड़पाता है। 
याद आके ज़माना माज़ी का अरमानों को तड़पाता है।।
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आस की भोली-भाली मधुर बालिका एक दिन हँसते-हँसते गज़ब ढा गई।
दिल का दीपक बुझाकर कहीं छुप गई मैं पुकारा किया रौशनी-रौशनी।।  
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तेरी तलाश ने गुम कर दिया है यूँ कि मुझे, 
हरेक शख्स तुझी सा दिखाई देता है। 
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हमने उल्फ़त में उनके हाथों से,
ज़हर का जाम लेना सीख लिय। 
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विभाजन कठिन तो नहीं दोस्तों पर,
कभी काश सोचो ज़रा ध्यान देकर,
कि इक बार धागा अगर टूट जाए,
तो जुड़ता है, लेकिन नयी गाँठ लेकर। 
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आप क्यों बिगड़े हैं जाकर आईना तो देखिये, 
ऐसी सूरत पर तो अपने आप आ जाता है दिल। 
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जिनकी बदौलत इस दुनिया पर जंग के बादल छाए थे। 
कहाँ थे इन्साँ वो तो यारो इन्सानों के साए थे। 
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Rooh lahoot tak ude pehle,
Tab kahin sa'at-e-visal aaye. 
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ए 'नरेश' आज क़यामत कोई और आएगी,
रूठने वाले नज़र आते हैं कुछ माने-से। 
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दर्द, ग़म, रंज आह, नाला, फुगाँ,
ए 'नरेश' एक आप हे के लिए।  
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ख़ुद ही पहलू में मचल उट्ठा था उनको देखकर,
अब तड़पता है तो ज़ालिम मुझको तड़पाता है दिल 
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कैसे 'नरेश' उनको समझाऊँ,
कितना सुख है अपनेपन में। 
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धूप भी है चाँदनी भी ज़ुल्म भी फ़रयाद भी,
दर्द भी है और दवा-ए-दर्द भी है ज़िन्दगी। 
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ऐ 'नरेश' अब भी न वो माने तो इसका क्या इलाज,
सर-ब-सर इक इल्तिजा तो बन चुकी है ज़िन्दगी। 
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साथ देते मेरा कब तक मेरे अश्कों के चिराग,
सुब्हदम भी न मेरे घर से अँधेरा निकला।  
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ए 'नरेश' एक मुद्दत से दिल में मेरे,
पल रही है किसी आरज़ू की चुभन। 
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आएगा कौन पुरसिशे-ग़म को यहाँ 'नरेश',
दस्तक है बादे-तुंद की धोखा न खाइए। 

पुरसिशे-ग़म - दुःख की पूछताछ; बादे-तुंद - तेज़ हवा 
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'नरेश' तौबा-ए-मैं तो दुरुस्त है लेकिन,
घटा उमड़ के कोई आ गई तो क्या होगा। 
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"मीर" के रंग में आज कहे हैं तूने ऐसे शे'र 'नरेश',
अब तो राम कसम मैं तुझको ऊँचा शायर माँनू हूँ।   
  
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'नरेश' बाँध के रक्खेगा मुझको कौन, कि मैं, 
बिखर चुका हूँ फ़ज़ाओं में गुफ़्तगू की तरह। 

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Hai yahi muqaddar to saath-saath hi reh lein, Ye bhi kya ki ham donon hon juda-juda rusva.
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Tere hi noor se roshan hai ye saara aalam, Tere hi noor se insan magar anjaan bhi hai.
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Khuda jaane saza hamko mili hai kin gunahon ki, Ki apne mulk hi mein ab nahin apni zabaan baaqi.
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तेरे करम को कभी यूँ भी हमने आंक लिया। 
तेरी हे याद के धागों से दिल को टाँक लिया।

कोई जहान  में मजबूर हम-सा क्या होगा, 
जिधर नसीब ने चाहा उधर को हाँक लिया। 
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'नरेश' ज़ख्म कोई और माँग यारों से,
जो कल मिला था वो भरता दिखाई देता है। 
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तेरे तेवर  देखके  तुझको मैं पापी गिर्दानूँ हूँ। 
वर्ना तू मुझसे प्यार करे है ये तो मैं भी जानूँ हूँ।

(गिर्दानूँ - पापियों में गिनता हूँ)
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ज़ीस्त से कब के आ चुके अजीज़,
जी रहे हैं मगर किसी के लिए। 

तन के मारे से कुछ नहीं होगा, 
मन को मारो कलंदरी  के लिए।  
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रहबरों ने ज़मीं बाँट ली है तो क्या लोग भी बंट  गए हैं तो क्या हो गया, 
मस्जिदें बे-अज़ा होने देंगे न हम तुम जलाओ वहाँ आरती का दिया।   
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'नरेश मिट न सकेंगे वो रोज़े -महशर तक,
जो राहे-इश्क़  में हम छोड़कर निशाँ गुज़रे। 

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वाइज़ से मिलके एक भरम और खुल गया,
मेरा ख्याल था कोई मुझसे बुरा नहीं। 

ये आपकी निगाह कि  क्या-क्या कह गयी,
गो आपने ज़बान से कुछ भी कहा नहीं। 

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आँसूं-आँसूं  में अक्स हो तेरा,
मुझको यूँ भी कभी रुला मौला। 

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जब से ये दिल तुम्हारा तमन्नाई बन गया,
दुनिय-जहान के लिए सौदाई बन गया। 

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ऐ 'नरेश' क्या कहिए इस नसीबे-यकता को,
मुश्किलें  जहाँ भर की आप ही के दामन में।  

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ऐ 'नरेश' उम्र भर सब्र रुस्वा न हो ग़ैरते-ज़ब्त पर हर्फ़ आए  नहीं,
आरज़ू है न बाकी रहे आरज़ू हाथ उट्ठे न मेरे बराए-दुआ।  

रुस्वा - बदनाम; ग़ैरते-ज़ब्त - सहनशीलता का गौरव;  बराए-दुआ - प्रार्थना के लिए 

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घर से भागे  तो घर को ही लौट आओगे,
आसमाँ अपनी छत सा कहाँ पाओगे।

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हमने सोचा था मुजस्सम दोस्ती हो जाएगा ,
क्या खबर थी एक दिन वो अजनबी हो जाएगा। 

मुजस्सम - साक्षात 

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जो तेरे बिन न तुझ से कुछ माँगे,
वो गदागर मुझे बना मौला। 

मेरे माथे पर लिख दे नाम अपना,
मुझ को अपना पता बना मौला। 

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रूह लाहूत तक उड़े पहले,
फिर कहीं साअते-विसाल आए।

रूह - आत्मा; लाहूत - आत्मा-परमात्मा के मिलन का स्थल; साअते-विसाल - मिलन की घड़ी  

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सब निगाहों का है धोखा दोस्तो,
आईना-ख़ाना है दुनिया दोस्तो।

भर गया जो कल दिया था दोस्तो,
और कोई ज़ख्म ताज़ा दोस्तों। 

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उलझना किसने सिखाया है इसको रिन्दों से,
मेरे ख़ुदा ज़रा नासेह को भी नसीहत दे। 

नासेह - उपदेशक 

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इश्क़ की आरज़ू, 
हुस्न की आबरू। 

क्या खुलेगी ज़बाँ,
आपके रु-ब-रु। 

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अदू के हाथ का उस ज़ुल्फ़ से है क्या रिश्ता,
कि आस्तीं में इधर है उधर नक़ाब में साँप। 

अदू - दुश्मन 

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तुम ये 'नरेश' गुज़िश्ता बातों पर कब तक पछताओगे, 
बीते कल की छोड़ो आने वाले कल की बात करो। 

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हमने गुस्ताख़ होके उनके हुज़ूर,
ख़ुद पे इलज़ाम लेना सीख लिया।  

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साक़िया क्या हुआ वाइज़ को मेरे आने से।
उठके बेचारे को जाना पड़ा मैखाने से। 

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होश्मन्दि का तक़ाज़ा तो यही है हमनशीं,
हाथ में साग़र भी हो लैब पर ख़ुदा का नाम भी।  

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दर्द जो तुमने दिया था कभी हँसते-हँसते,
सोचता हूँ उसे परवान चढ़ाया जाये। 

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दिमाग़ कहता है हक़ माँग ले 'नरेश' उनसे,
अना पुकार रही है कोई सवाल न कर। 

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मेरी उजड़ी जवानी का है बस इतना निशाँ बाक़ी।
नशेमन जल गया लेकिन अभी तक है धुआँ बाक़ी। 

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रो दे कि अभी हँस दे या हस्ते हुए रो दे,
इक तुर्फ़ा तमाशा है आशिक़ की तबियत भी। 

तुर्फ़ा - अद्भुत 

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वो अगर तौबा है रिन्दों की 'नरेश',
मैं जनाबे-शैख़ का ईमान हूँ। 

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